तुझ बिन सुना घर का आँगन, देहली चार दीवारी By kavi Balram Singh Rajput (कविता kavita)
तुझ बिन सुना घर का आँगन, देहली चार दीवारी .
बचपन में रखती थी गुड़िया, तुझ बिन सुनी वो अलमारी .
तुझ बिन रंग गुलाल नहीं, सुनी होली की पिचकारी .
रंग लगाकर चिल्लाई थी, तुझ बिन सुनी वो किलकारी .
जगमग घर तो आज भी है, पर तुझ बिन सुनी है दीवाली .
निकल जाता है अक्सर मुँह से बेटी, पर तुझ बिन सुनी पूजन थाली .
तुझ बिन सुना है वसंत, वो फूलों की क्यारी .
जिसमे पानी डालती थी, वो गुलाब की क्यारी .
तुझ बिन सुनी वो गर्म हवाएं, और बर्फ का पानी .
तुझ बिन सुनी है मां है तेरी, जो करती थी रखवारी .
तुझ बिन सुना है सवेरा, चाय की वो प्याली .
चहचहाते पक्षी, और सूरज की लाली .
तुझ बिन सुनी शाम है मेरी, प्यारी सी हंसी और ताली .
तुझ बिन बेटी सुनी है, मेरे जीवन की खुशियां सारी .
तुझ बिन सुना बरसता बादल, घास की वो हरियाली .
तुझ बिन बीते सावन भादों, और जाड़े की ठंड सारी .
तुझ बिन सुनी आँखे मेरी, घर भी लगता है खाली .
गुड़िया तो तेरी रखी हुई है, पर ना जाने क्यों सुनी है अलमारी .
कवि बलराम सिंह राजपूत - कविता
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