काश खुद में खुद को, देखा होता By kavi Balram Singh Rajput (कविता kavita)


काश खुद में खुद को, देखा होता .
तो आज इंसान, इंसान होता .
और कभी दुसरो में, अपनों को देख लेता .
तो इंसान इंसान नहीं, भगवान होता .


पर ना खुद में, खुद को देखा .
और ना इंसान ने, इंसान को देखा .
फरेब से भरे लोगो ने, दूसरों को क्या .
अपनों में अपनों को, तक नहीं देखा .

इस जहां की क्या, मिसाल दू .
जब बेटे ने, बूढ़े बाप को ही नहीं देखा .
मां की भी, उम्र हो गयी है .
पर उसके सर के बोझ को, नहीं देखा .

रिश्तों को जो खुद, निभा नहीं सके .
उन्होंने सात जन्म के, बंधन को नहीं देखा .
आये थे वो आज कोर्ट में, तलाक लेने .
उस पति ने, अपनी पत्नी को नहीं देखा .
लड़ रहे है वो, बच्चों को लेकर . 
पर उन मासूम आँखों में किसी ने नहीं देखा .

आज भाई कह रहा है, देख लूंगा तुझे मैं .
पर सगे भाई ने, अपने भाई को नहीं देखा .
लड़ रहे है वो, एक छोटी सी बात को लेकर .
पर उसका अंजाम, किसी ने नहीं देखा .

बेवजह बदनाम कर रहे है, लोग इश्क को .
पर इश्क के उसूल को, किसी ने नहीं देखा . 
लोग जिंदगी काट देते है, एक नाम के सहारे .
पर उनके वजूद को, किसी ने नहीं देखा .

चल रहा है खूनी खेल, धर्म के नाम पर .
किन्तु भूख से बिलबिलाते बच्चें ने, रोटी में मजहब नहीं देखा .
चौराहे पर किसी को भीख देकर, हमे खुद को बड़े समझ बैठे .
पर उस भीख की वजह को, किसी ने नहीं देखा .

खुद को ना सही, काश इंसान ने इंसान को देखा होता .
तो दुनिया में इस तरह का, इंसानियत का मंजर नहीं होता .

कवि बलराम सिंह राजपूत

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