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अक्तूबर, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

तुझ बिन सुना घर का आँगन, देहली चार दीवारी By kavi Balram Singh Rajput (कविता kavita)

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तुझ बिन सुना घर का आँगन, देहली चार दीवारी . बचपन में रखती थी गुड़िया, तुझ बिन सुनी वो अलमारी . तुझ बिन रंग गुलाल नहीं, सुनी होली की पिचकारी . रंग लगाकर चिल्लाई थी, तुझ बिन सुनी वो किलकारी . जगमग घर तो आज भी है, पर तुझ बिन सुनी है दीवाली . निकल जाता है अक्सर मुँह से बेटी, पर तुझ बिन सुनी पूजन थाली .

चलो सब कुछ खत्म करते है

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चलो सब कुछ खत्म करते है . हां सही सुना, सब कुछ खत्म करते है . बहुत बाते है जो तुम्हें पसंद नहीं . बहुत बाते है जो हमे पसंद नहीं . इसलिए बेहतर होगा कि, सब कुछ खत्म करते है .

हां आप मेरे हो

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हां आप मेरे हो . कितनी बार कहु . क्या बार-बार कहु . एक बार कह तो दिया ना कि, आप मेरे हो . समझते क्यों नहीं हो आप . क्या हर बात लिख कर दू ?

काश खुद में खुद को, देखा होता By kavi Balram Singh Rajput (कविता kavita)

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काश खुद में खुद को, देखा होता . तो आज इंसान, इंसान होता . और कभी दुसरो में, अपनों को देख लेता . तो इंसान इंसान नहीं, भगवान होता .

प्रिया छोड़ ना जइयो, परदेस

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प्रिया छोड़ ना जइयो, परदेस . घणो प्यारों है, आपणो देश . रंगत है इणमें, घणी प्यार की .  प्यारों है याकों, भेष . प्रिया छोड़ ना जइयो, परदेस .