मैं ठेठ गांव का छोरा by कवि बलराम सिंह राजपूत kavi balram singh rajput
तू शहर की पढ़ी लिखी, मैं ठेठ गांव का छोरा .
तू महलों में रहती, अपना जंगल बिच बसेरा .
प्रेम के पीहर में जन्मे हम, वही हमारा डेरा .
आभावों की आबादी में, जहां होता रोज सवेरा .
तुमने देखी है शहर की नींदे, हमने गांव के सपने .
भीड़ तो बहुत है शहरों में, पर नहीं है कोई अपने .
गाँवो में अपनापन है जिन्दा , जिन्दा है यहाँ पर रिश्ते .
दर्द अगर थोड़ा भी हो तो, बन जाते हजार फ़रिश्तें .
जैसा मेरा गांव है पगली, ऐसा कहा शहर है तेरा .
आभावों की आबादी में, जहां होता रोज सवेरा .
गांव में तुमको मिल जायेंगे, कुछ रिश्ते अंजाने .
अपनी मस्ती में मस्ताने, साथ तुम्हारे दीवाने .
खूब हसेंगे वो, तुमको भी बहुत हसाएंगे .
नादां हो अगर तुम थोड़े से तो, बैठ तुम्हे समझायेंगे.
चढ़ जाये जिस पर उतरे नहीं, मेरे गांव का रंग है इतना गहरा .
आभावों की आबादी में, जहां होता रोज सवेरा .
यहाँ खेत है यहाँ कुँए है, तीर सी बहती नदियाँ है .
पनिहारिन के गीतों में, इठलाती हुई सदियां है .
खड़े पेड़ भी यहाँ, अपना रिश्ता निभाते है .
घनी छांव में इनकी कोई, तपती धुप बिताते है.
इंसानो की इस बस्ती में, पंछी भी देते है पहरा .
आभावों की आबादी में, जहां होता रोज सवेरा .
तू कोमल सी तू मखमल सी, क्या जाने तू गांव की रीत .
प्रेम तो मुझसे है तुझको, पर तुझसे होगी ना गांव की प्रीत .
कंकर पत्थर है गांव मैं मेरे, और तेरे है कोमल पैर .
जीवन संगिनी बनकर पगली, तुझसे ना होगी पैदल सैर .
शहर नहीं है यह, प्यारा सा गांव है मेरा .
प्रेम के पीहर में जन्मे हम, वही हमारा डेरा .
आभावों की आबादी में, जहां होता रोज सवेरा .
कवि - बलराम सिंह राजपूत
कवि हू कवितायें सुनाता हू
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