मैं एक नारी हू by- कवि बलराम सिंह राजपूत


मैं एक नारी हू


यक़ीनन आपको भरोसा नहीं होगा, जिंदगी पर मेरी.
कितनी मजबूरियां भरी पड़ी है, इस हंसी में मेरी .
मैं हंसती हू मुस्कुराती हू, लगता है सबको की खुश हू मैं .
पर वो हंसी कितनी उदासियाँ लिए हुए है, सोच नहीं सकोगे .
मैं अपनों के लिए जीती हू , उनको खुश रखने की कोशिश करती हू .
शायद इसलिए अपनों के साथ, दिल खोलकर हंसती हू .
पर उस हंसी के अंदर, मुझे रोना पड़ता है .
अपने आंसुओ से कभी-कभी खुद को, धोना पड़ता है .
हालांकि बहुत लोग समझते है मुझे .
कुछ जरूरत के तौर पर कुछ अमानत के तौर पर, और कुछ इंसानियत के तौर पर .
फिर भी मैं सबके लिए एक ही हू,ना मेरे मन में कुछ छिपा है, और ना मेरी उमंग में .
मुझमे मेरा कुछ नहीं है, ना उम्मीदे मेरी है ना सपने मेरे है .
अफसोस की जिंदगी में, ना कुछ अपने मेरे है .
सिमटी सी जिंदगी है मेरी, घर के हर कोने में.
सुबह काम में कट जाती है, और रात बिछौने में .
कभी बहुत दुःख भी झेले है, संकट भी देखे है .
कभी मुझको आग लगाते, मेने अपने देखे है .
किसी ने सुंदरता पर मेरी, तेजाब भी फेंका है .
कभी खुद को खुद के घर से, बेघर होते देखा है .
ना जाने कुछ ने मेरे बारे में, जाने क्या क्या सोचा है .
कभी मुझे कुछ शैतानो ने, अपने ही घर में नोंचा है .
लक्ष्मी कही जाती हू में, तो कभी दुर्गा बनाकर पूजते है .
दूध दही नीर से, मतलब के लिए सींचते है .
कितना भी कहु मैं अपने बारे में, सब व्यर्थ माना जायेगा .
आखिर कब मुझे मेरा, सम्मान दिया जायेगा .
त्याग हू, समर्पण हू, संयम हू, स्वाभिमान हू .
मैं माँ हू, बहन हू, पत्नी और, एक पिता का त्याग हू .
फिर भी मैं अपनों को जिताकर, खुद से हारी हू .
मजबूर हू फिर भी, मैं एक नारी हू .


कवि - बलराम सिंह राजपूत




















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